लड़-लड़ कर न जाने कितने शहीद हो गए...
इस तरकीब से भी कहाँ हम करीब हो गए ...
सरहद बना कर, ऐ-खुदा, बता तुझे क्या मिला?
इंसानो को दुश्मन बनाकर तुझे क्या मिला?
किसी ने अपना भाई , किसे ने अपना पति खोया ...
एक बूढी माँ ने सरहद पर , अपना बेटा खोया ...
दिल दहल जाता है, पर तुझे क्यों नहीं दिखता ...
ऐ-खुदा, क्या तुझे सरहदों का नुक्सान नहीं दिखता ?
जाने क्यों हम खुदा के इतने हबीब हो गए ...
जो इस जनम में हम भी बशर हो गए ...
इन पैरों में मौला , तू पंख लगा देता ...
सरहदों को न मानता , एक पंछी बना देता ...
पंछी बन सैर उस पार की भी कर आता ...
इस खूबसूरत प्रकृति को, इन आँखों में भर आता ...
ये क्या है जो हमे एक होने से रोकता है ...
इंसान को ही इंसान से मिलने से रोकता है ...
क्या बशरीयत का हशर, ये हुआ है? जानता नहीं ...
कोई इंसान किसी का सागा बचा भी है, जानता नहीं ...
मन तो बहुत है, ये युद्ध रोक फिर शांत हो जाए...
ये सरहदें हटा कर फिर से हम एक हो जाए...
पर क्या अब इंसान बशरीयत लौटाएगा?
नहीं...
शायद ये विचार ही लौट आएगा..!
ये सरहदें हटा कर फिर से हम एक हो जाए...
पर क्या अब इंसान बशरीयत लौटाएगा?
नहीं...
शायद ये विचार ही लौट आएगा..!
लेखक - अनुज सिंघल
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