Friday, 11 July 2014

#33 - "उनकी आँखें"



उम्मीद की जैसे बौछार नज़र आई...
मुझे उन आँखों में ख़ुशी नज़र आई...
मैं भी जीने की चाह हार चुका था मगर...
मुझे उनकी आँखों में ज़िन्दगी नज़र आई...

खिलखिलाना भी उनका आँखों में छिपाया गया...
रूठ जाने का इरादा भी नैनों में बसाया गया...
जुबां खामोश रहती है लेकिन सब कह देते है...
उनकी आँखों को ही "अनुज", जुबां बनाया गया...

जब आँखें है जुबां, क्यों न खामोश रहूँ...
उस कजरे के  नशे में, क्यों न मदहोश रहूँ...
बेहोश अगर इन्हीं की वजह से मानते हो मुझे...
एक कारण बताओ आखिर, क्यों न बेहोश रहूँ...

झुक कर उठे तो अदा बन जाती है...
ये आँखें प्यार का प्रयायवाची बन जाती है...
देख लेती हैं ये जिसे भी दो पल के लिए "अनुज"...
ये उसी के लिए, आशिकी का सबब बन जाती है...

ज़िद्द के बाद मिली कोई चीज़ के जैसे...
सच हुए किसी ख्वाब के जैसे...
नैन उनके कुछ ऐसे है मेरे लिए...
तितली को मिले फूल के जैसे...

लेखक - अनुज सिंघल 

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