अपनी माँ का लाड़ला, वो हमेशा था...
लेकिन मन से, वो देश प्रेम का मारा था...
मर कर भी देखो, वो अमर हो चला...
आज फिर एक सिपाही, भगत सिंह हो चला...
सीमा पर खड़ा है, मौसम को मात दिए...
है तैनात हर पल, मस्तिष्क को मात दिए...
वो बिना सोचे, जान की बाज़ी लगा चला...
आज फिर एक सिपाही, भगत सिंह हो चला...
न था मोह उसे, न माया की चिंता थी...
दिल से उसे, बस अपने वतन की चिंता थी...
बिना डरे वो मौत को, देखो ललकारने को चला...
आज फिर एक सिपाही, भगत सिंह हो चला...
फिर एक रोज़ जंग छिड़ी और तनाव हो गया...
जंग में वो सिपाही, "अनुज" घायल हो गया...
न रुके, न थके, वो बस लड़ता ही चला...
आज फिर एक सिपाही, भगत सिंह हो चला...
लोहे सी छाती पर खायी गोली और कमज़ोर पड़ गया...
मारे कितने ही दुश्मन, हाँ, वो उन पर भारी पड़ गया...
"इंक़लाब ज़िंदाबाद" के नारे लगाता, वो सिपाही शहीद हो चला...
आज फिर एक सिपाही, भगत सिंह हो चला...
भगत सिंह हो चला...
लेखक - अनुज सिंघल